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संपादक
भोजराज सिंह पंवार
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बुधनी टाइम्स

पवित्र ग्रंथ पर राजनीति

बुधनी टाइम समाचार पत्र सुजालपुर जमाना गुज़र गया। गोस्वामी तुलसीदास ने जब रामचरित मानस रचा तब समाज की स्थिति क्या थी, ये जाने बिना आज उनकी चौपाइयों पर विवाद खड़ा करने का मतलब क्या है? दरअसल, यह वोट की राजनीति है। संगठित समाज को जातिगत टुकड़ों में बाँटने का एक सोचा-समझा उपक्रम माना जा सकता है यह विवाद।हर कोई जानता है कि अंग्रेजों ने भी लोगों को बाँटने के लिए यही किया था। धर्म ग्रंथों को निशाना बनाकर समाज के इसी तरह टुकड़े किए गए थे जिस तरह आज समाजवादी पार्टी करने पर तुली हुई है। देखते हैं कौन सी चौपाइयों पर विवाद है। पहली - ढोल, गंवार, सूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी। अर्थ है- ढोल, गंवार, वंचित, जानवर और नारी, ये पाँचों के बारे में जानकारी लेना ज़रूरी है। ताडन का अर्थ किसी के बारे में पता लगाना, सच पता करना होता है। कहीं - कहीं इस चौपाई में ताडन के स्थान पर ताड़ना शब्द लिखा है। ताड़ना का मतलब भी देखना, पता लगाना या जानकारी लेना ही है। कुछ लोग ताड़ना शब्द का अर्थ प्रताडना के रूप में भी ले रहे हैं। हो सकता है - यह भी हो, लेकिन आज परिस्थितियाँ अलग हैं। इसलिए आज इसकी विवेचना में जाकर विवाद पैदा करना क़तई सही नहीं है। कुछ विद्वानों का कहना है सुद्र और नारी शब्द संशोधन का नतीजा है। इसे हम क्षेपक कह सकते हैं- असल चौपाई में सुद्र, पशु की जगह क्षुब्ध पशु और नारी की जगह रारी है। तो इन विद्वानों के अनुसार असल चौपाई हुई - ढोल, गंवार, क्षुब्ध पशु, रारी, सकल ताड़ना के अधिकारी। यहाँ क्षुब्द पशु यानी आवारा जानवर हुआ और रारी का मतलब कलह करने वाला हुआ। पूरी चौपाई का मतलब हुआ इन चारों के बारे में पहले पूरी जानकारी लेना ज़रूरी है। दूसरी चौपाई जिस पर विवाद है वह है- पूजहिं विप्र सकल गुण हीना, पुजहिं न शूद्र गुण ज्ञान प्रवीणा। मतलब विप्र चाहे जितना भी ज्ञान रहित हो, उसकी पूजा होनी चाहिए, जबकि शूद्र कितना भी ज्ञानी प्रवीण हो, वह सम्माननीय हो सकता है, पूजनीय नहीं हो सकता। अब इस चौपाई के अर्थ को समझने के लिए पहले ये समझना होगा कि विप्र कौन है? शूद्र कौन? गोस्वामी ने विप्र शब्द का प्रयोग किया है, ब्राह्मण शब्द का नहीं। मनु स्मृति का श्लोक है- जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात् भवेत् द्विज:। वेद पाठात् भवेत् विप्र: ब्रह्म जानातीति ब्राह्मण: अर्थात् व्यक्ति जन्म से शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन- पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी हो सकता है। इस सब में जाति कहाँ है? सब कुछ तो गुण- धर्म पर आधारित है। फिर समाजवादी पार्टी के नेता इसकी ग़लत व्याख्या कर ही क्यों रहे हैं? कम से कम पवित्र धर्म ग्रंथों या जिन ग्रंथों में लोगों की आस्था है, उन्हें वोट की राजनीति से दूर रखने की आवश्यकता है। राजनीतिक पार्टियों के लिए इस आशय की आचार संहिता बननी चाहिए।

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